बीसवीं सदी के अन्तिम दशक सन् 1990 में इस क्षेत्र में संस्कृत और संस्कृति के ह्रास को देखते हुये क्षेत्रीय जनता व प्रबुद्ध समाज ने स्वर्गीय श्रीमती बसन्ती देवी जुयाल धर्मपत्नी ब्रिगेडियर विद्याधर जुयाल जी से अनुरोध किया कि माँ भुवनेश्वरी के पावन चरणों में संस्कृत और संस्कृति के उत्थान हेतु एक संस्कृत विद्यालय की स्थापना की जाये, जिससे समाज में बन्धुत्व, सदाचार एवं संस्कृति से ओत-प्रोत युवाओं /युवतियों को तैयार किया जा सके,.और ऐसे अधिकांश साधन विहीन व निर्धन युवा-युवती अपने पैरों पर खड़े हो सकें। इस कार्य से जहाँ एक ओर भारतीय संस्कृति सबल होगी, दूसरी ओर समाज को सुसंस्कृत एवं सदाचारी युवाओं को देकर समाज सेवा का पुण्य कार्य भी हो सकेगा इस भावना से ओत-प्रोत होकर श्रीमती बसन्ती जी ने अपने स्वर्गीय पति ब्रिगेडियर विद्याधर जुयाल जी की की स्मृति में इस सिद्धपीठ पर दो कक्षों व एक बरामदे से युक्त एक भवन का निर्माण करवाया, उस समय स्थानीय आठ-दस बालक – बालिकाओं व दो आचार्यों (अध्यापकों)से ये विद्यालय सम्वत्त् 2047 में प्रारम्भ किया गया। तब यह स्थान जल एवम् विद्युत व्यवस्थाओं से विहीन था, तथा न यहां पर कोई सड़क मार्ग था।